सावन महीने में पुरानी झूलों की परंपरा: एक खतरे में अस्तित्वसावन महीने में पुरानी झूलों की परंपरा: एक खतरे में अस्तित्व
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सावन महीने के दौरान परंपराएँ और झूलों का महत्व कम हो रहा है। पहले वृक्षों के नीचे लंबे झूले लगाए जाते थे और महिलाएं सावन के मधुर गीत गाती थीं। लेकिन वृक्षों की कटाई और मनोरंजन के स्रोतों की वजह से यह परंपरा दिखाई नहीं देती है। पुरानी संस्कृति को बचाने और पेड़ों के प्रति जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है

 

सावन महीने के दौरान पुरानी झूलों की परंपरा की समाप्ति देखी जा रही है। पहले वृक्षों की डालों पर लंबे झूले लगाए जाते थे और महिलाएं सावन के मधुर गीत गाकर झूला झूलती थीं। लेकिन अब पेड़ों की कटाई के कारण यह परंपरा समाप्त हो रही है। वर्षों पहले पेड़ों के नीचे बैठकर गाँव की जीवनशैली को दर्शाने वाले झूले आज खतरे में हैं क्योंकि पेड़ों का अस्तित्व भी खतरे में है। यह समस्या गाँव से लेकर शहरों तक फैल गई है।

पहले सावन में लोग झूलों पर गीत गाते हुए समय बिताते थे, लेकिन आजकल लोगों की रुचि फिल्मों और मोबाइल एप्लिकेशनों की ओर है। परंतु इससे पुरानी परंपराओं की भूल हो रही है और वृक्षों के अस्तित्व को खतरा हो रहा है। पुराने समय में सावन महीने में लोग वृक्षों के नीचे बैठकर आल्हा पढ़ते थे, लेकिन आजकल यह प्रैक्टिस धीरे-धीरे गायब हो रही है।

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सावन के महीने में यह भारतीय परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, जो आजके दौर में कम हो रहा है। लोगों की रुचि अब फिल्मों और अन्य मनोरंजन स्रोतों की ओर बढ़ गई है, जिससे पुरानी परंपराएँ भूल जा रही हैं। वृक्षों की कटाई और पर्यावरण की परिस्थितियों के कारण वृक्षों का अस्तित्व खतरे में है।

समाज में यह चुनौती है कि हम अपनी परंपराओं को बचाएं और पेड़ों के प्रति सावधानी बरतें, ताकि हमारी प्राचीन संस्कृति का मान सम्मान बना रहे और हमारे पर्यावरण का भी ध्यान रखा जा सके।

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