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द्वाराहाट में आयोजित हुआ ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती मेला

ललित बिष्ट

अल्मोड़ा में रण बांकुरो के शहर द्वाराहाट में ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती मेले का विधिवत उद्घाटन हो गया है। जिसमें आज रणबांकुरो ने इतिहास को साक्षी मानते हुए अपनी पारंपरिक शैली में ओढ़ा भेटने की रस्म अदा की।ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती मेले में ढोल नगाड़े की गर्जना व हुड़के की घमक ने वीररस की हुंकार भरते हुए हिमालय के गौरवशाली अतीत के दर्शन कराए।

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इसमें जहां एक ओर रणबांकुरो ने उत्तराखंड के ,लोक सरंकार नृत्य से, अपने युद्धकौशल का प्रदर्शन किया। वहीं संपूर्ण द्वारिका क्षेत्र की महिला शक्ति ने प्रेम व श्रृंगार रस से लबरेज झोड़ा व चांचरी ने माहौल में अलग ही मिठास घोल दी।

 

 

 

 

 

लोक वाद्य यंत्र रणसिंग की गगनभेदी धुन और अपनी विजय के प्रतीक चिन्ह निशानों को हाथों में थामकर दर्जनों किलोमीटर दूर के गांव से आकर आल व गरख धड़े के जोशीले रणबांकुरों ने ओड़ा भेंटने की रस्म निभाई।

 

 

 

 

आपको बता दे कि अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र में स्यालदे बिखोती मेला एक प्रसिद्ध मेला है, जिसमें इस द्वारिका क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं । पुराने बुजुर्ग बताते है कि पूर्व में यहां एक पोखर के समीप ही शीतला माता का मंदिर था, यहां प्रतिवर्ष चैत्र के समापन पर मेला आयोजित किया जाता था।

 

 

 

 

 

 

 

जिसमे सभी क्षेत्रवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन किवदंती है कि एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया। हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया। इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है ।

 

 

 

 

 

यह पत्थर द्वाराहाट के मुख्य बाजार में है। जिसके बारे में किवदंती है की प्रतिवर्ष यह ओड़ा इस दिन थोड़ा ऊपर आ जाता है इसलिए इस ओड़े पर ऊपर से लाठी डंडों सब चोट मार कर इसे फिर जमीन में दबाया जाता है। इस परम्परा को ‘ओड़ा भेटना’ कहा जाता है।

 

 

 

 

 

वहीं कोई इसे राजुला मालूशाही के मिलन कहानी से प्रतीक के रूप में भी इस मेले को देखते है जिसमें भोट की रानी राजुला बैराठ के राजा मालूशाही की तलाश में इस मेले में आई थी।

 

 

 

 

यह मेला द्वाराहाट के लोगों की आत्मा मेंकैसा रचा बसा है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां के लोग पुराने समय में पैसे के अभाव में मेले में जाने के लिए अपने घर बैलों को तक बेच देते थे लेकिन मेले में जरूर जाते थे।

 

 

 

 

 

 

 

यह मेला उत्तराखंड के उन चंद मेले में से एक से एक है जो अभी भी अपनी संस्कृति को संरक्षित किए हुए है लेकिन इसे द्वाराहाट का दुर्भाग्य ही कहे कि राजनीतिक हुक्मरान इस मेले से सिर्फ राजनीतिक रोटियां ही सेंकते हुए नजर आए है।इसके संवर्धन और संरक्षण को कोई किए गए प्रयास नाकाफी है। जनता को भी इस मेले को राजकीय मेला घोषित न किए जाने का खासा मलाल है।

 

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