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 तलाक, शादी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अलग हाई कोर्ट का फैसला पढ़िए क्या हाई कोर्ट फैसला

देश में ट्रिपल तलाक को लेकर कानून बन चुका है जिस पर देश भर में लगातार ट्रिपल तलाक देने वालों पर कानूनी कार्यवाही भी होती हुई दिखाई दे रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद, हाईकोर्ट ने इस मामले पर अब अपना अलग रुख अपनाया है, ट्रिपल तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसला के बारे में जाने से पहले आइए आप को बताते हैं कि आखिर ट्रिपल तलाक है क्या ?

क्या है तलाक ए बिदअत

तीन बार तलाक को तलाक ए बिदअत कहा जाता है। बिदअत यानी वह कार्य या प्रक्रिया जिसे इस्लाम का मूल अंग समझकर सदियों से अपनाया जा रहा है, हालांकि कुरआन और हदीस की रौशनी में यह कार्य या प्रक्रिया साबित नहीं होते। जब कुरआन और हदीस से कोई बात साबित नहीं होती, फिर भी उसे इस्लाम समझकर अपनाना, मानना बिदअत है। ट्रिपल तलाक को भी तलाक ए बिदअत कहा गया है, क्योंकि तलाक लेने और देने के अन्य इस्लामिक तरीके भी मौजूद हैं, जो वास्तव में महिलाओं के उत्थान के लिए लाए गए थे।

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तीन तलाक इस्लामिक नहीं

हजरत इब्न अब्बास फरमाते हैं कि पेगंबर साहब के दौर में तीन तलाक एक माने जाते थे, अबू बकर सिद्दीक के दौर में भी तीन तलाक एक माने जाते थे। यानी किसी ने तीन तलाक दे भी दिया है तो उसकी प्रक्रिया अधूरी है, तलाक नहीं हुआ। हज़रत उमर के दौर के पहले दो साल तक तीन तलाक एक माने जाते थे, लेकिन उसके बाद हज़रत उमर उस समय के हालात को देखकर के कहते थे कि अगर किसी ने तीन तलाक दिए तो तीन हो जाते हैं। यह एक फौरी व्यवस्था थी और यह निर्णय कुछ विशेष प्रकरणों को देखकर लिया गया था। हज़रत उमर खुद इसे स्थायी नहीं चाहते थे। तीन बार तलाक कहना तो कुरान में है ही नहीं।

केरल हाईकोर्ट ने ताजा फैसले में कहा कि अदालत न तो किसी मुस्लिम शख्स को तलाक देने से रोक सकती है और न ही 1 से ज्यादा शादी करने से। मुस्लिम पर्सनल लॉ उन्हें ऐसा करने की इजाजत देता है। कोर्ट उनके निजी मामलों में तब तक दखल नहीं दे सकती जब तक कि उसके सामने कोई दूसरा व्यक्ति इस तरह के मामले को चुनौती न दे।

केरल हाईकोर्ट ने यह फैसला अवरुदीन बनाम सबीना केस में सुनवाई के बाद दिया है। हालांकि, केरल हाईकोर्ट ने पीड़ित महिला को तलाक के खिलाफ अदालत में याचिका दाखिल करने की इजाजत भी दी है, जो कि अपने आप में विरोधभासी है।

केरल हाईकोर्ट के जस्टिस ए मुहम्मद मुश्ताक और सोफी थॉमस की बेंच ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25 किसी भी शख्स को अपने धर्म की मान्यता के हिसाब से काम करने की इजाजत देता है। अगर अदालत के किसी आदेश से इसका उल्लंघन होता है तो ये संविधान की अवज्ञा होगी। हाईकोर्ट का कहना है कि इस तरह के मामलों में कोर्ट का अधिकार क्षेत्र सीमित है। फैमिली कोर्ट भी किसी शख्स को उसके पर्सनल लॉ के हिसाब से काम करने से नहीं रोक सकती ऐसा कुछ भी करना पूरी तरह से गलत होगा।

इससे पहले फैमिली कोर्ट ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को तलाक देने से रोका था। निचली अदालत ने शख्स की पत्नी की याचिका को भी स्वीकार करते हुए उसे दूसरी शादी करने से भी रोकने को लेकर आदेश दिया था। इसके उलट हाईकोर्ट ने कहा कि मुस्लिम शख्स ने जो कुछ भी किया वो अपने पर्सनल लॉ के हिसाब से किया। यानि डबल बेंच ने फैमिली कोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया। दूसरी तरफ डबल बेंच का कहना था कि पीड़ित महिला अपनी व्यथा को लेकर याचिका दाखिल कर सकती है।

 

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